सबसे बड़ी पार्टी बनकर भी 1989 में राजीव गांधी ने सरकार बनाने से क्यों किया था इनकार? कांग्रेस को हुआ था 217 सीटों का नुकसान

कई राजनीतिक घटनाएं इतिहास के पन्नों पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाती है। कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं, जो बहुत कुछ सिखा जाती है और सतर्क कर जाती है। साल 1996 में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। वैसे तो त्रिशंकु लोकसभा की सूरत में आमतौर पर सबसे बड़े दल की तरफ से सरकार बनाने का दावा पेश किया जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी ने साल 1996 में इसी आधार पर न केवल सरकार बनाने का दावा किया था बल्कि तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। हालांकि उन्हें 13 दिन के बाद इस्तीफा देना पड़ा था। किसी भी दल ने उनकी पार्टी को समर्थन देने से इनकार कर दिया था। लेकिन इस परंपरा से ठीक उलट 1989 में राजीव गांधी ने 1989 में सरकार बनाने से इनकार कर दिया था। इसे भी पढ़ें: 2019 के मुकाबले बीजेपी को कम सीटें मिलने का शुरुआती रूझान, झूम उठा पाकिस्तान, राहुल गांधी को लेकर कह दी ये बातथर्ड फ्रंट की राजनीति का पर्दापणस्वतंत्र भारत में चार दशकों के कुल चुनावी प्रभुत्व के बाद 80 के दशक के अंत में अपमानजनक हार के साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) को पराजय का दौर भी देखने को मिला। नवंबर 1989 के चुनाव म

सबसे बड़ी पार्टी बनकर भी 1989 में राजीव गांधी ने सरकार बनाने से क्यों किया था इनकार? कांग्रेस को हुआ था 217 सीटों का नुकसान
कई राजनीतिक घटनाएं इतिहास के पन्नों पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाती है। कुछ ऐसी घटनाएं होती हैं, जो बहुत कुछ सिखा जाती है और सतर्क कर जाती है। साल 1996 में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। वैसे तो त्रिशंकु लोकसभा की सूरत में आमतौर पर सबसे बड़े दल की तरफ से सरकार बनाने का दावा पेश किया जाता है। अटल बिहारी वाजपेयी ने साल 1996 में इसी आधार पर न केवल सरकार बनाने का दावा किया था बल्कि तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी थी। हालांकि उन्हें 13 दिन के बाद इस्तीफा देना पड़ा था। किसी भी दल ने उनकी पार्टी को समर्थन देने से इनकार कर दिया था। लेकिन इस परंपरा से ठीक उलट 1989 में राजीव गांधी ने 1989 में सरकार बनाने से इनकार कर दिया था। 

इसे भी पढ़ें: 2019 के मुकाबले बीजेपी को कम सीटें मिलने का शुरुआती रूझान, झूम उठा पाकिस्तान, राहुल गांधी को लेकर कह दी ये बात

थर्ड फ्रंट की राजनीति का पर्दापण
स्वतंत्र भारत में चार दशकों के कुल चुनावी प्रभुत्व के बाद 80 के दशक के अंत में अपमानजनक हार के साथ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) को पराजय का दौर भी देखने को मिला। नवंबर 1989 के चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने के बावजूद, किसी भी पार्टी को स्पष्ट जनादेश नहीं मिला, प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा। 1984 की अपनी शानदार जीत से इतर उसे अपनी जीती हुई कुल सीटों में से आधे से भी कम सीटें मिलीं। पार्टी ने न केवल केंद्र की सत्ता खो दी, बल्कि राजनीतिक प्रभुत्व भी खो दिया। बोफोर्स घोटाले की आंच में सभी राजनीतिक दलों के विपक्षी दलों ने हाथ मिला लिया, जिससे देश में गठबंधन राजनीति और 'थर्ड फ्रंट' के एक नए युग की शुरुआत हुई। हालाँकि, यह गठबंधन सरकार, 1977 के जनता प्रयोग के बाद लंबे समय तक नहीं चली और 'मंदिर और मंडल' का शिकार हो गई।
 कांग्रेस को 217 सीटों का नुकसान
राजीव गांधी उस वक्त प्रधानमंत्री थे और उनके नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी को 197 सीटें हासिल हुई थी। कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। वहीं जनता पार्टी को 143 सीटें हासिल हुई थी। 414 सीटें जीतने वाली कांग्रेस को महज पांच साल में 217 सीटों का नुकसान हुआ था। राजीव गांधी ने इस जनादेश को अपने खिलाफ मानते हुए प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था।  

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11 महीने में गिर गई वीपी सिंह की सरकार
1989 में लोकसभा चुनाव हुए। बोफोर्स तोप सौदे में ली गई दलाली को निशाना बनाकर विपक्षी दलों ने 1989 के चुनाव में अपनी तोपों से कई नायाब नारों के गोले कांग्रेस, विशेषकर राजीव गांधी पर छोड़े। राजीव भाई, राजीब भाई तोप दलाली किसने खाई। इसके अलावा राजीव सरकार से त्यागपत्र देने और बोफोर्स की दलाली के मुद्दे को उछालने वाले राजा मांडा के नाम से प्रसिद्ध विश्वनाथ प्रसाद सिंह से संबंधित थे। 'राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है'  इस नारे ने गंगा-यमुना के दोआब में बसे जिले में ऐसा जादू किया था कि फतेहपुर से ही सांसद बने वीपी सिंह बीजेपी से सशर्त और लेफ्ट से बिना किसी शर्त के समर्थन से देश के प्रधानमंत्री बन गए। लेकिन राष्ट्रीय मोर्चा की यह सरकार 11 महीनों से ज़्यादा नहीं चल सकी. 1991 में रथयात्रा के समय बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी के बाद पार्टी ने वीपी सिंह सरकार के समर्थन वापस ले लिया था। 

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